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जानें कैसे होती है बेल।

बेल मतलब जमानत।

जमानती अपराध- कानूनी के जानकारों के अनुसार, अपराध दो तरह के होते हैं, जमानती और गैर जमानती। जमानती अपराध में मारपीट, धमकी, लापरवाही से गाड़ी चलाना, लापरवाही से मौत जैसे मामले आते हैं। इस तरह के मामले में थाने से ही जमानत दिए जाने का प्रावधान है। आरोपी थाने में बेल बॉन्ड भरता है और फिर उसे जमानत दी जाती है।

गैर जमानती अपराध- गैर जमानती अपराधों में लूट, डकैती, हत्या, हत्या की कोशिश, गैर इरादतन हत्या, रेप, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आदि अपराध हैं। इस तरह के मामले में कोर्ट के सामने तमाम तथ्य पेश किए जाते हैं और फिर कोर्ट जमानत का फैसला लेता है।

कानून विशेषज्ञों के अनुसार,  अगर पुलिस समय पर चार्जशीट दाखिल नहीं करे, तब भी आरोपी को जमानत दी जा सकती है, चाहे मामला बेहद गंभीर ही क्यों न हो। ऐसे अपराध जिसमें 10 साल या उससे ज्यादा सजा का प्रावधान है, उसमें गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करना जरूरी है। अगर इस दौरान चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है तो आरोपी को सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत जमानत दिए जाने का प्रावधान है। वहीं 10 साल कैद की सजा से कम वाले मामले में 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करनी होती है और नहीं करने पर जमानत का प्रावधान है।

गिरफ्तारी से बचने के लिए कई बार आरोपी कोर्ट के सामने अग्रिम जमानत की अर्जी दाखिल करता है, कई बार अंतरिम जमानत की मांग करता है या फिर रेग्युलर बेल के लिए अर्जी दाखिल करता है। जब किसी आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में केस पेंडिंग होता है, तो उस दौरान आरोपी सीआरपीसी की धारा-439 के तहत अदालत से जमानत की मांग करता है। ट्रायल कोर्ट या हाई कोर्ट केस की मेरिट आदि के आधार पर अर्जी पर कोर्ट फैसला लेता है। इस धारा के तहत आरोपी को अंतरिम जमानत या फिर रेगुलर बेल दी जाती है। इसके लिए आरोपी को मुचलका भरना होता है और निर्देशों का पालन करना होता है। अगर आरोपी को अंदेशा हो कि अमुक मामले में वह गिरफ्तार हो सकता है, तो वह गिरफ्तारी से बचने के लिए धारा-438 के तहत अग्रिम जमानत की मांग कर सकता है। कोर्ट जब किसी आरोपी को जमानत देता है, तो वह उसे पर्सनल बॉन्ड के अलावा जमानती पेश करने के लिए कह सकता है। अगर 10 हजार रुपये की राशि का जमानती पेश करने के लिए कहा जाए तो आरोपी को इतनी राशि की जमानती पेश करना होता है।

पैरोल

पैरोलः पैरोल भी कैदियों से जुड़ा एक टर्म है। इसमें कैदी को जेल से बाहर जाने के लिए एक संतोषजनक/आधार कारण बताना होता है। प्रशासन, कैदी की अर्जी को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। प्रशासन कैदी को एक समय विशेष के लिए जेल से रिहा करने से पहले समाज पर इसके असर को भी ध्यान में रखता है। पैरोल एक तरह की अनुमति लेने जैसा है। इसे खारिज भी किया जा सकता है।

पैरोल दो तरह के होते हैं। पहला कस्टडी पैरोल और दूसरा रेग्युलर पैरोल।

कस्टडी पैरोलः जब कैदी के परिवार में किसी की मौत हो गई हो या फिर परिवार में किसी की शादी हो या फिर परिवार में कोई सख्त बीमार हो, उस वक्त उसे कस्टडी पैरोल दिया जाता है। इस दौरान आरोपी को जब जेल से बाहर लाया जाता है तो उसके साथ पुलिसकर्मी होते हैं और इसकी अधिकतम अवधि 6 घंटे के लिए ही होती है।

रेग्युलर पैरोलः रेग्युलर पैरोल दोषी को ही दिया जा सकता है, अंडर ट्रायल को नहीं। अगर दोषी ने एक साल की सजा काट ली हो तो उसे रेग्युलर पैरोल दिया जा सकता है।

क्या होता है फरलो ?

फरलोः फरलो एक डच शब्द है। इसके तहत कैदी को अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए रिहा किया जाता है। इसे कैदी के सुधार से जोड़कर भी देखा जाता है। दरअसल, तकनीकी तौर पर फरलो कैदी का मूलभूत अधिकार माना जाता है। 

पैरोल मिलने के कानूनी नियम

1. पूर्ण और असाध्य अंधापन।

2. कोई कैदी जेल में गंभीर रूप से बीमार है और वो जेल के बाहर उसकी सेहत में सुधार होता है।

3. फेफड़े के गंभीर क्षयरोग से पीड़ित रोगी को भी पैरोल प्रदान की जाती है। यह रोग कैदी को उसके द्वारा किए अपराध को आगे कर पाने के लिए अक्षम बना देता है। या इस रोग से पीड़ित वह कैदी उस तरह का अपराध दोबारा नहीं कर सकता, जिसके लिए उसे सजा मिली है।

4. यदि कैदी मानसिक रूप से अस्थिर है और उसे अस्पताल में इलाज की जरूरत है।

साथ ही भारत के अंदर कई असाधारण मामलों में भी कैदी को पैरोल दी जा सकती है।

1. अंतिम संस्कार के लिए।

2. कैदी के परिवार का कोई सदस्य बीमार हो या मर जाए।

3. किसी कैदी को बेटे, बेटी, भाई और बहन की शादी के लिए।

4. घर का निर्माण करने या फिर क्षतिग्रस्त घर की मरम्मत के लिए।

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